दिल्ली/मुंबई। हिंदू धर्म का वंचित और शोषत समुदाय लगातार अपनी अस्मिता और आर्थिक स्वतंत्रता को लेकर संघर्षरत रहा है। हिंदू धर्म के उच्च वर्णों द्वारा लगातार इस समुदाय का शोषण उत्पीड़न किया गया है। महर्षि मनु द्वारा दी गई व्यवस्था के अनुसार हिंदू धर्म में चार वर्ण हैं जिसमें प्रथम स्थान पर ब्राह्मण, दूसरे पर वैश्य (बनिये) तीसरे स्थान पर क्षत्रिय और चौथे पायदान पर अन्य लोग हैं जिन्हें शूद्र बताया गया है। इस श्रेणी में आजकल के हिसाब से अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग आते हैं। इस वर्ण में हजारों जातियां आती हैं। व्यवस्था पर काबिज उच्च वर्ण के लोगों ने हमेशा इन हजारों जातियों के लोगों का शोषण-उत्पीड़न किया और बराबर के अधिकार कभी नहीं दिए जबकि यही वर्ग सबसे अधिक मेहनत करता है।
हिंदू धर्म ने वर्णभेद के अलावा जातिभेद की भी व्यवस्था दी है। जैसे ब्राह्मणों में शुक्ला, त्रिपाठी, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, तिवारी इत्यादि। अलग-अलग प्रदेशों में अलग टाइटल वाले ब्राह्मण पाये जाते हैं। इनमें भी मामूली ही सही लेकिन जातिभेद पाया जाता है। इसी तरह बनियों और क्षत्रियों मंे भी है। शुद्रों या बहुजनों में भारी जातिभेद है। यह एक साजिश है धर्म की राजनीति करने वालों की, ताकि एक ही वर्ण के लोग कभी एकताबद्ध होकर व्यवस्था के लिए चुनौती न बन सकें। भारत में जातिभेद और शोषण तथा उत्पीड़न के खिलाफ सदियों से लोग आवाज उठाते रहे हैं। इसी के तहत डाॅ. भीमराव अंबेडकर ने कठिन सामाजिक और राजनीतिक लड़ाई लड़ी। हालांकि मुगलों के समय ही दलितों को काफी महत्व मिला था लेकिन अंग्रेजी शासनकाल में स्थित काफी सुधरी। हिंदू महासभा और बाद में आरएसएस या अन्य ‘हिंदुत्ववादी’ दलितों को कोई भी अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन अंग्रेज दलितों की बड़ी आबादी की अधिक उपेक्षा नहीं देख सकते थे। डाॅ. अंबेडकर के आंदोलन का अंग्रेजों पर काफी असर पड़ा था। आजाद भारत में दलित नेता तो बहुत हुए लेकिन उनमें से अधिकतर अपने, अपने परिवार या अन्य मुठ्ठी भर लोगों के भले तक ही सीमित रहे। आठवें तथा नौवें दशक में काशीराम के आंदोलन ने दलितों में राजनीतिक चेतना और अपनी अस्मिता की चेतना जगाई। 1989-90 में ओबीसी, एससी,एसटी के लिए आरक्षण से संबंधित मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार ने फैसला लिया तो उच्चवर्णीय लोगों ने उत्तर भारत में बड़ा बवाल खड़ा कर दिया। तब नई पीढ़ी को एक हद तक साफ दिखा कि दलितों को अधिकार की बातें सिर्फ बातें हैं असल में लोकतांत्रिक देश में भी व्यवस्था पर उच्चवर्ण के लोग अपना पूर्ण कब्जा जमाए रखना चाहते हैं और बहुजनों को उनके अधिकार नहीं देना चाहते। काशीराम के आंदोलन और मंडल कमीशन के लागू होने से आई दलित चेतना को कंुद करने के लिए तब आरएसएस ने राम मंदिर निर्माण को मुद्दा बनाया जिसमें उसके नेता लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा लेकर निकले। इस यात्रा को बिहार में लालू यादव ने रोक दिया था। लेकिन इस पूरे मंदिर आंदोलन में मुस्लिमों के प्रति नफरत हिंदुओं में काफी भरी गई थी। दलितों को इस दौर में इस्तेमाल करने के लिए काफी बड़ी संख्या में आरएसएस के विभिन्न संगठनों में भरा गया था। मंदिर आंदोलन के उस दौर में तमाम दंगे हुए जिनमें हजारों जानें गईं। जान-माल का नुकसान मुस्लिमों को ही नहीं दलितों को भी उठाना पड़ा।
इस बीच बहुत बहुजन शिक्षा प्राप्त करने, रोजगार के नये अवसरों के तलाश में भी लगे रहे। कुछ दलित राजनीति में भी उतरे। सरकारी नौकरियां लगातार कम हो रही थीं। ऐसे में जरूरत थी कि कैसे अपनी जरूरतों की पूर्ति की जाए। 1991 में देश में लागू नये आर्थिक माॅडल ने जहां गरीबी और अमीरी की खाई को और बड़ा किया वहीं कुछ लोगों को आय के नये स्रोत भी उपलब्ध हुए और उन्होंने इसका लाभ उठाने का प्रयास किया।
आज बहुत बहुजन उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में हैं। उन्होंने सेवा, उत्पाद, व्यापार से खुद को साबित किया है बल्कि बहुतों को रोजगार दिया है साथ ही वे अन्य को प्रेरित व प्रोत्साहित भी कर रहे हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, शॉप से लेकर जय भीम ब्रैंड और रबर के बैगों के जरिये देशभर में नए आर्थिक मॉडल के तहत दलित पहचान को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है.
यह नया आर्थिक मॉडल इस विश्वास पर आधारित है कि अगर दलित समुदाय दलित पहचान वाले उन ब्रैंड्स को स्वीकार करता है जो दलितों द्वारा बनाए गए हैं तो इससे मिलने वाला पैसा दलित समुदाय के लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता देगा और उन्हें सियासी फलक में भी अपनी जगह बनाने में आसानी होगी.
पिछले कुछ सालों में उभरे दलित ब्रैंड भारत की जाति व्यवस्था को चुनौती देने और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने के लिए राजनीति और अर्थव्यवस्था का मिश्रण कर रहे हैं. इसके लिए एक रणनीति के तहत अपने समुदाय के साथ जुड़े जय भीम और बहुजन जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया जा रहा है.
2014 के चुनावों को बहुत से दलित हिंदुत्ववादी ताकतों की जीत के रूप में देखते हैं. इन चुनावों के बाद से उनमें अलग-थलग पड़ जाने का डर महसूस किया जा सकता है.
दलित समुदाय के लोगों का कहना है कि राजनीतिक ध्रुवीकरण और दलित मध्यमवर्ग के उदय के कारण ही दलित ब्रैंडिंग का उदय हुआ है.
दलित लेखक और समाजसेवी चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, यह दलितों द्वारा अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की कोशिश का एक नया रूप है. 2014 में हिंदुत्व की जीत समाज को फिर से बांट रही है और दलितों को अलग-थलग कर दिए जाने का एक नई किस्म का डर पैदा हो गया है. इसलिए बी दलित, बाय दलित जैसी ब्रैंडिंग आधुनिक दलित चेतना का प्रतीक बन रही है.
सुधीर राजभर उत्तर प्रदेश के जौनपुर से हैं और भर समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. वह चमार स्टूडियो और चमार फाउंडेशन के संस्थापक हैं. उनका इरादा अपने लेबल के माध्यम से फैशन के क्षेत्र में दाखघ्लि होना है. लंबे समय तक इसमें बने रहने के लिए उन्होंने चमड़े की जगह रबर इस्तेमाल करने की रणनीति अपनाई है.
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