विश्व राजनीति को प्रभावित करने वाले नेहरू के समकालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने भी दुनिया पर असर डाला, जानिए उनके बारे में


विश्व राजनीति को प्रभावित करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समकालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने 5 अप्रैल 1955 को प्रधानमंत्री पद छोड़ा था। यहां विकीपीडिया से साभार प्रस्तुत है उनके बारे में संक्षिप्त जानकारी: चर्चिल (Sir Winston Leonard Spencer Churchill) का जन्म ३० नवम्बर १८७४ को आक्सफोर्ड शायर के ब्लेनहिम पैलेस में हुआ था। इनके पिता लार्ड रेनडल्फ चर्चिल थे, माता जेनी न्यूयार्क नगर के लियोनार्ड जेराम की पुत्री थीं। इनकी शिक्षा हैरी और सैंहर्स्ट में हुई। १८९५ में सेना में भरती हुए और १८९७ में मालकंड के युद्धस्थल में तथा १८९८ में उमदुरमान के युद्ध में भाग लिया। इन यद्धों ने उन्हें दो पुस्तकों - दि स्टोरी ऑव मालकंड फील्ड फोर्स (१८९८) और दि रिवर वार (१८९९) - के लिये पर्याप्त सामग्री प्रदान की। दक्षिणी अफ्रीका के युद्ध (१८९९-१९०२) के समय वह मार्निग पोस्ट के संवाददाता का कार्य कर रहे थे। वे वहाँ बंदी भी हुए, परंतु भाग निकले। उन्होंने अपने अनुभवों का उल्लेख लंदन टु लेडीस्मिथ वाया प्रिटोरिया (१९००) में किया है।
 १९०० में ओल्डहेम निर्वाचनक्षेत्र से संसदसदस्य निर्वचित हुए। यहाँ पर वह काफी तैयारी के बाद भाषण किया करते थे। अतरू आगे चलकर वादविवाद की कला में वह विशेष निपुण हुए। इनको अपन पिता के राजनीतिक संस्मरणों का काफी ज्ञान था। इसीलिये इन्होंने १९०६ में लाइफ ऑव लार्ड रेवडल्फ चर्चिल लिखी जो अंग्रेजी की सर्वोत्तम रुचिकर राजनीतिक जीवनियों में गिनी जाती है। १९०४ में चेंबरलेन की व्यपारकर नीति से असंतुष्ट होकर चर्चिल लिबरल दल में सम्मिलित हुए और कैंपबेल बैनरमैन (१९०५- १९०८) के मंत्रिमंडल में वे उपनिवेशों के अधिसचिव नियुक्त हुए। १९०८ में वे मंत्रिमंडल में व्यापारमंडल के सभापति के नाते सम्मिलित हुए। १९०९ से ११ तक वे गृहसचिव रहे। औद्योगिक उपद्रवों को सँभालने में असमर्थ होने के कारण उन्हें जलसेना का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस पद पर उन्होंने बड़ी लगन और दूरदर्शिता से कार्य किया और यही कारण है कि १९१४ में जब युद्ध प्रारंभ हुआ तो ब्रिटिश जलसेना पूर्ण रूप से सुसज्जित थी। वे जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के समर्थक थे। जब उदारवादी सरकार का पतन हुआ तो उन्होंने राजनीति को त्याग युद्धस्थल में प्रवेश किया। १९१७ में लायड जार्ज के नेतृत्व में वे युद्ध तथा परिवहन मंत्री हुए। लायड जार्ज से उनकी अधिक समय तक न पटी और १९२२ में वे सदस्य भी निर्वाचित नहीं हुए।
 १९२४ में वे एपिंग से संसत्सदस्य निर्वाचित हुए और स्टैंन्ली बाल्डविन ने उन्हें कंजरवेटिव दल में पुनरू सम्मिलित होने के लिये आमंत्रित किया। १९२९ में उनका बाल्डविन से भारत के संबध में मतभेद हो गया। चर्चिल भारत में ब्रिटिश-साम्राज्य-सत्ता का किसी प्रकार का भी समर्पण नहीं चाहते थे। ९ वर्ष तक वे मंत्रिमंडल से बाहर रहे। परंतु संसत्सदस्य तथा प्रभावशाली नेता होने के कारण वे सार्वजनिक प्रश्नों पर अपने विचार स्पष्ट करते रहे। इन्होंने हिटलर से समझौता की नीति का खुला विरोध किया। म्यूनिख समझौते को बिना युद्ध की हार बताया। वे इंग्लैंड को युद्ध के लिये तैयार करना चाहते थे और इसके लिये सोवियत संघ से तुरंत समझौता आवश्यक समझते थे। प्रधान मंत्री चैंबरलेन ने इनके दोनों सुझावों को अस्वीकार कर दिया। ३ सितंबर, १९३९ को ब्रिटेन ने जब युत्र की घोषणा की तो चर्चिल को जलसेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया। मई, १९४० में नार्वे की हार ने ब्रिटिश जनता में चैंबरलेन के प्रति विश्वास को डिगा दिया। १० मई को चैंबरलेन ने त्यगपत्र दे दिया और चर्चिल ने प्रधान मंत्री पद संभाला और एक सम्मिलित राष्ट्रीय सरकार का निर्माण किया। लोकसभा में तीन दिन बाद भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि मैं रक्त, श्रम, आँसू और पसीने के अतिरिक्त और प्रदान नहीं कर सकता। उनका युद्धविजय में अटूट विश्वास था, जो संकट के समय प्रेरणा देता रहा। ब्रिटिश साम्राज्य की संयुक्त शक्ति ही नहीं वरन् अमरीका और रूस की शक्तियों का जर्मनों के विरुद्ध सक्रिय रूप से प्रेरित किया। उनके अथक परिश्रम, विश्वास, दृढ़ता और लगन के कारण मित्र राष्ट्रों की विजय हुई। इस विजय ने उनके लिये नवीन समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। बेल्जियम, इटली और यूनान की कथित प्रतिक्रियावादी सरकारों के समर्थन का उनपर आरोप लगाया गया और साथ ही सोवियत संघ से पूर्वी यूरोप के सबंध में मतभद उत्पन्न हो गया १९४५ में युद्ध की विजय के उत्सव मनाए गए, परंतु उसी वर्ष के जून के सार्वजनिक निर्वाचन में चर्चिल के दल की हार हुई और उन्हें विरोधी नेत का पद ग्रहण करना पड़ा। जनता जानती थी कि वे युद्ध स्थिति का नेतृत्व कर सकते हैं। आवश्यकता निर्माण की नहीं बल्कि युद्ध के पश्चात् निर्माण की थी। १९४५-५० तक वे अपने संसदीय उत्तरदायित्वों के साथ साथ द्वितीय महायुद्ध का इतिहास लिखने में भी व्यस्त रहे। इसको इन्होंने छह खंडों में लिखा है। १९५३ में उन्हें साहित्य सेवा के लिये नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। १९५० के सार्वजनिक निर्वाचन में उनके दल के सदस्यों की संख्या बढ़ी और श्रमदल का बहुमत केवल सात सदस्यों का रह गया। अक्टूबर, १९५१ के निर्वाचन में उनके दल की विजय हुई और वह पुनरू प्रधान मंत्री नियुक्त हुए। वह विश्वशांति के लिये एकाग्रचित्त होकर प्रयत्नशील रहे उन्होंने अंग्रेजी भाषाभाषियों का एक वृहत् इतिहास अपने विशिष्ट दृष्टिकोण से लिखा है। वृद्धावस्था और अस्वस्थ्य के कारण उन्होंने ५ अप्रैल १९५५ को प्रधान मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया और इस प्रकार राजनीति से अवकाश ग्रहण किया।


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