नई दिल्ली। मुनाफाखोर पूंजीपति और उनके इशारों पर नाचती सरकारों ने पूरी प्रकृति, जल, जंगल, वनस्पति, जमीन, जीव-जंतु जगत को संकट में डाल रहा है। प्रदूषण यानी हवा और पानी में अत्यधिक जहरीले तत्वों के मिलने से सब कुछ जहरीला हो गया है। इससे वनस्पति, जीव-जंतु नष्ट या विकृत हो रहे हैं। भयंकर कष्ट बढ़ रहे हैं। उपचार के लिए भारी-भरकम रकम और समय व्यय हो रहा है लेकिन फिर भी समस्याओं का निदान होने के बजाय समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। सरकारें और पंूजीपतियों के पालतू तथाकथित स्वंयसेवी संगठन और एजेंसियां लोगों को उपदेश देती हैं कि वे पर्यापरण को प्रदूषित न करें। लेकिन सवाल है कि सामान्य जनता आखिर कितना प्रदूषण करती है और वह कितना इसे बचा सकती है ? उद्योगों से जहरीले रसायन जमीन और हवा में जाते हैं। बिजली, कोयला, डीजल, पैट्रोल आदि से चलने वाले उपकरणों और वाहनों इत्यादि से भयंकर प्रदूषण होता है। प्रदूषण कम हो इसके लिए तय मानकों का पालन नहीं होता। सरकारें आसान और सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन अधिकतम जनता को उपलब्ध कराने का प्रयास नहीं करती। हर जगह निजी वाहनों की भीड़ है। ऐसे में प्रदूषण कैसे कम रह सकता है ? पिछले साल ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय शहरों के संबंध में एक रिपोर्ट जारी की थी, इसमें भारतीय शहरों में हवा की खतरनाक स्थिति की जानकारी दी गई थी। हालांकि इसमें एक औसत जानकारी ही दी गई जो हकीकत से कम है और वास्तविक हालात बेहद खराब हैं। हवा जहरीली और प्रदूषित होने का मतलब है वायु में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) के स्तर में वृद्धि होना. हवा में पीएम 2.5 की मात्रा 60 और पीएम10 की मात्रा 100 होने की मात्रा पर इसे सुरक्षित माना जाता है. लेकिन इससे ज्यादा हो तो वह बेहद ही नुकसान दायक माना जाता है.
ग्रीनपीस इंडिया ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट एयरपोक्लिपस में 280 शहरों का विश्लेषण किया है. इन शहरों में देश की करीब 53 फीसदी जनसंख्या रहती है. बाकी 47 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्र में रहती है जहां की वायु गुणवत्ता के आंकड़े उपलब्ध ही नहीं हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि इन 63 करोड़ में से 55 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जहां पीएम10 का स्तर राष्ट्रीय मानक से कहीं अधिक है.
ग्रीनपीस के सीनियर कैंपेनर सुनील दहिया कहते हैं, भारत में कुल जनसंख्या के सिर्फ 16 प्रतिशत लोगों को वायु गुणवत्ता का रियल टाइम आंकड़ा उपलब्ध है. यह दिखाता है कि हम वायु प्रदूषण जैसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिये कितने असंवेदनशील हैं. यहां तक कि जिन 300 शहरों में वायु गुणवत्ता के आंकड़े मैन्यूअल रूप से एकत्र किए जाते हैं वहां भी आम जनता को वह आसानी से उपलब्ध नहीं है.
अगर औसत पीएम 10 स्तर के आधार पर रैंकिग को देखें तो पता चलता है कि साल 2016 में दिल्ली 290 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर के साथ शीर्ष पर बना हुआ है। वहीं फरीदाबाद, भिवाड़ी, पटना क्रमशः 272, 262 और 261 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर के साथ दिल्ली से थोड़ा ही पीछे हैं. आश्चर्य की बात है कि देहरादून (उत्तराखंड) भी शीर्ष दस की सूची में है, जहां औसत पीएम10, 238 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर रहा है. 2016 में सूची में शामिल 280 शहरों में शीर्ष 20 शहरों का औसत वार्षित पीएम10 स्तर 290 से 195 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर रहा.
रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से एक भी शहर विश्व स्वास्थ्य संगठन के वायु गुणवत्ता मानक (20 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर औसत) को पूरा नहीं करते. इतना ही नहीं 80 प्रतिशत भारतीय शहर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक (60 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर औसत) को भी पूरा नहीं करते. रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर गंगा के मैदानी इलाके में हैं. हालांकि दक्षिण भारत के शहरों में भी एक तय समय सीमा के भीतर योजना बनाकर वायु गुणवत्ता को राष्ट्रीय मानक के अंदर लाने की जरूरत है.
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